Friday, April 25, 2014

नेहरू गांधी परिवार













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Tuesday, April 15, 2014

चंद्रशेखर की अंत्येष्टि में भी सोनिया ने लगाया था अड़ंगा


imageview जागरण न्यूज नेटवर्क, नई दिल्ली : प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पूर्व मीडिया सलाहकार संजय बारू की किताब ‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर-मेकिंग एंड अनमेकिंग ऑफ मनमोहन सिंह’ के हर पन्ने में कुछ ऐसे तथ्य हैं, जो बताते हैं कि कांग्रेस में पार्टी अध्यक्ष की इच्छा हर महत्वपूर्ण फैसले पर हावी रहती है। बारू लिखते हैं कि सोनिया गांधी की इच्छा के चलते ही पूर्व पीएम नरसिम्हा राव का अंतिम संस्कार दिल्ली में नहीं हो पाया था। कांग्रेस ने पूरी कोशिश की थी कि पूर्व पीएम चंद्रशेखर का अंतिम संस्कार भी दिल्ली में न हो पाए। चंद्रशेखर के परिजनों को दिल्ली में उनका अंतिम संस्कार करने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ी थी। 1बारू लिखते हैं कि वर्ष 2007 में कांग्रेस नेतृत्व की तानाशाही उस समय सामने आई, जब पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की मृत्यु हुई। कांग्रेस ने पूरी कोशिश की थी कि चंद्रशेखर का अंतिम संस्कार हरियाणा के भोंडसी के उनके फार्म में किया जाए। इस पर चंद्रशेखर के परिजन अड़ गए और उनके बेटे ने चेतावनी दी कि अगर पूर्व प्रधानमंत्री का अंतिम संस्कार राजकीय सम्मान के साथ नहीं किया गया तो वह दिल्ली के लोदी श्मशान घाट में उनकी अंत्येष्टि कर देंगे। काफी मशक्कत के बाद चंद्रशेखर का अंतिम संस्कार यमुना नदी के तट पर ‘एकता स्थल’ में किया गया। मनमोहन के पूर्व मीडिया सलाहकार लिखते हैं, ‘सोनिया गांधी के राजनीतिक सलाहकार अहमद पटेल से मेरा कम ही वास्ता पड़ता था। जब भी हम बात करते थे, दोनों की ओर से काफी गर्मजोशी रहती थी और अमूमन दोस्ताना बातें ही होती थीं। प्रधानमंत्री कार्यालय में रहते हुए मेरी दो ही बार खास मुद्दों पर उनसे बात हुई थी। 1पहली बातचीत पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव की मृत्यु के तुरंत बाद हुई थी।’ बारू लिखते हैं कि नरसिम्हा राव की मृत्यु के बाद वह और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह दिल्ली के मोतीलाल नेहरू मार्ग स्थित पूर्व पीएम के आवास पहुंचे थे। जब मनमोहन सिंह अंदर चले गए, तो पटेल ने बारू को एक तरफ खींचा और कहने लगे, ‘राव के बच्चे चाहते हैं कि अन्य कांग्रेसी प्रधानमंत्रियों की ही तरह उनके पिता का अंतिम संस्कार भी दिल्ली में ही हो।’ राष्ट्रीय राजधानी में यमुना नदी के किनारे महात्मा गांधी की समाधि के नजदीक पूर्व पीएम पंडित जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी का अंतिम संस्कार किया गया था। अंत्येष्टि की जगहों पर उनके स्मारक भी बनवाए गए हैं। यहां तक कि कांग्रेस से किसी तरह का नाता नहीं रखने वाले पूर्व पीएम चरण सिंह और महज सांसद रहे संजय गांधी का अंतिम संस्कार भी दिल्ली में ही किया गया था और उनके भी स्मारक बनवाए गए हैं। बारू लिखते हैं, ‘अहमद पटेल चाहते थे कि मैं राव के बच्चों रंगा व प्रभाकर और बेटी वाणी को अपने पिता का पार्थिव शरीर अंतिम संस्कार के लिए हैदराबाद ले जाने के लिए मनाऊं। मुङो स्पष्ट समझ आ रहा था कि सोनिया राव का कोई भी स्मारक दिल्ली में कहीं भी नहीं बनने देना चाहती हैं। पटेल के आग्रह पर मैंने कुछ देर विचार किया और महसूस किया कि राव के परिजनों को यह संदेश देना मेरे लिए ठीक नहीं रहेगा। मैंने सोचा कि मैं क्यों इस मसले में पडूं? मैं पटेल के संदेश का एक भी शब्द राव के परिजनों को बताए बिना लौट आया। शाम को मुङो पता चला कि कांग्रेस पार्टी ने राव के परिजनों को हैदराबाद में अंतिम संस्कार के लिए रजामंद कर लिया। कांग्रेस ने एयरपोर्ट ले जाते समय उनके पार्थिव शरीर को पार्टी मुख्यालय लाने की अनुमति तक नहीं दी। यहां तक कि सोनिया गांधी राव के अंतिम संस्कार में शामिल होने के लिए हैदराबाद भी नहीं गईं।

 


’भोपाल : कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह का कहना है कि पूर्व मीडिया सलाहकार और पूर्व कोयल सचिव पीसी पारेख की किताबों में भाजपा के पीएम उम्मीदवार नरेंद्र मोदी का पैसा लगा है। दोनों किताबें प्रायोजित हैं। जबकि केंद्रीय वाणिज्य व उद्योग मंत्री आनंद शर्मा ने संजय बारू की किताब के समय पर सवाल उठाया है। उन्होंने कहा कि इतने सालों बाद पूर्व मीडिया सलाहकार ने अपनी किताब जारी करने के लिए चुनाव का वक्त ही क्यों चुना?

कोल ब्लॉक आवंटन प्रक्रिया को सुसंगत बनाने का श्रेय प्रधानमंत्री को देने की जरूरत है। उन्होंने जब आवंटन प्रक्रिया और पारदर्शी बनानी शुरू की तो पांच गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों ने इसका विरोध किया था। 1-रणदीप सुरजेवाला, कांग्रेस प्रवक्ता (कोल ब्लॉक आवंटन पर मनमोहन सिंह के बचाव में)संजय बारूचंद्रशेखरजागरण ब्यूरो, नई दिल्ली : पीसी पारेख ने अपनी किताब में खुलासा किया है कि उनके कार्यकाल में पूरे कोयला मंत्रलय में हर तरफ लूट और भ्रष्टाचार का साम्राज्य फैला था और खुद कोयला मंत्री और राज्यमंत्री इसका नेतृत्व कर रहे थे। पारेख के अनुसार मंत्रियों द्वारा कोयला की सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के सीएमडी और निदेशकों से उगाही से लेकर उनकी नियुक्ति में रिश्वत लेना सामान्य था। इसमें सांसद भी पीछे नहीं रहते थे। उन्होंने विस्तार से बताया है कि किस तरह कांग्रेस से लेकर भाजपा सांसद तक उनसे गैरकानूनी काम करने को कहते थे और नहीं करने पर प्रधानमंत्री और सीवीसी से झूठी शिकायत करते थे। हिंडाल्को को कोयला ब्लाक आवंटन करने के मामले में पारेख अपनी किताब में सीबीआइ पर जमकर बरसे हैं। खुद को कोयला क्षेत्र में सुधारों का मसीहा बताते हुए उन्होंने घोटाले की जांच में सीबीआइ की मंशा पर सवाल उठाया है। पारेख के अनुसार, यदि हिंडाल्को को कोयला ब्लाक आवंटन करने की संस्तुति करने पर उन्हें आरोपी बनाया गया तो फिर आवंटन करने वाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को क्यों नहीं। पारेख के अनुसार सीबीआइ सिर्फ कंपनियों के आवेदन में खामी निकालने में जुटी है, जबकि असली घोटाला कोयला ब्लाकों की नीलामी रोकने में हुई है, जैसा कि कैग ने अपनी रिपोर्ट में खुलासा किया था। उन्होंने सीबीआइ पर मीडिया में गलतबयानी कर हिंडाल्को की जांच को सही ठहराने का भी आरोप लगाया है।


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नई दिल्ली, प्रेट्र : भाजपा ने सोमवार को सोनिया गांधी और राहुल गांधी से कहा कि वे सत्ता के दो केंद्रों और प्रधानमंत्री के राजनीतिक अधिकार के बारे में पूर्व कोयला सचिव पीसी पारेख और प्रधानमंत्री के पूर्व मीडिया सलाहकार संजय बारू की किताबों में उठाए गए मुद्दों पर सफाई दें। भाजपा प्रवक्ता निर्मला सीतारमन ने कहा कि दोनों किताबों ने केवल उन्हीं बातों को बल दिया है जिनके बारे में भाजपा हमेशा से कहती रही है। यह परिवार अब इन सवालों का जवाब देने की जिम्मेदारी से भाग नहीं सकता। यही समय है जब इन सवालों का जवाब दिया जाए। इन मुद्दों से मुंह मोड़ने की जगह पारेख और बारू के उठाए गए मुद्दों का सोनिया और राहुल हर हाल में जवाब दें।1पारेख को अंतत: क्लीनचिट देगी सीबीआइ : विनोद राय1पूर्व नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) विनोद राय सोमवार को पूर्व कोयला सचिव पीसी पारेख के समर्थन में उतर आए। कोल ब्लॉक आवंटन घोटाले में पारेख को सीबीआइ ने नामजद अभियुक्त बनाया है। राय ने दावा किया है कि जांच एजेंसी पारेख को अंतत: क्लीनचिट दे देगी।

प्रधानमंत्री ने बतौर पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी के अधिकारों पर और खासकर विभागों के बंटवारे के मामले में कभी सवाल नहीं उठाया। हालांकि, समय बीतने के साथ मनमोहन सिंह इस मामले में अपनी इच्छा और सुझाव सोनिया के सामने जाहिर करने लगे। कई बार सोनिया उनकी बात स्वीकार भी कर लेती थीं। बारू लिखते हैं, ‘फिर भी मैं जानता हूं कि मंत्रियों की नियुक्ति में डॉ. सिंह के पूरे नियंत्रण के मामले पर बहस नहीं की जा सकती।’ 1मुङो लगता था कि कम से कम कनिष्ठ मंत्रियों की नियुक्ति के मामले में तो उन्हें बोलना चाहिए और मैं मौका मिलने पर इसके लिए उन्हें प्रोत्साहित भी करता था। पीएम ने 2005 में बारू से पूछा कि क्या जयराम रमेश को सरकार में शामिल किया जाना चाहिए। इस पर बारू ने कहा कि जयराम को सरकार में जगह हासिल करने के लिए पीएम के प्रति ज्यादा वफादारी दिखानी चाहिए। इस बातचीत के कुछ दिन बाद एक पत्रकार के घर हुई क्रिसमस पार्टी में मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने मुझसे पूछा कि मैं जयराम का विरोध क्यों कर रहा हूं। मैंने मोंटेक को साफ किया कि मैं जयराम के खिलाफ नहीं हूं। मैंने पीएम से सिर्फ इतना कहा है, ‘कम से कम युवा कांग्रेस सांसदों को तो यह महसूस होना चाहिए कि उन्हें मंत्री पद प्रधानमंत्री की वजह से मिला है।’ इसके कुछ महीने बाद जनवरी, 2006 में जयराम को वाणिज्य राज्यमंत्री बना दिया गया। मुझ उस समय कतई आश्चर्य नहीं हुआ, जब मुङो पता चला कि जयराम ने सोनिया की मित्र सुमन दुबे को पद दिलाने के लिए फोन कर धन्यवाद दिया है। बारू लिखते हैं कि कांग्रेस में किसी नेता को खुश करने का सीधा मतलब सिर्फ सोनिया को खुश करने से होता है। जयराम की वफादारी पूरी तरह से सोनिया के प्रति थी, जो बाद में उस समय साबित हुआ जब उन्होंने सोनिया का पीएम को लिखा पत्र मीडिया में लीक कर मनमोहन के लिए मुसीबत खड़ी कर दी थी।

नई दिल्ली, प्रेट्र : भाजपा ने सोमवार को सोनिया गांधी और राहुल गांधी से कहा कि वे सत्ता के दो केंद्रों और प्रधानमंत्री के राजनीतिक अधिकार के बारे में पूर्व कोयला सचिव पीसी पारेख और प्रधानमंत्री के पूर्व मीडिया सलाहकार संजय बारू की किताबों में उठाए गए मुद्दों पर सफाई दें। भाजपा प्रवक्ता निर्मला सीतारमन ने कहा कि दोनों किताबों ने केवल उन्हीं बातों को बल दिया है जिनके बारे में भाजपा हमेशा से कहती रही है। यह परिवार अब इन सवालों का जवाब देने की जिम्मेदारी से भाग नहीं सकता। यही समय है जब इन सवालों का जवाब दिया जाए। इन मुद्दों से मुंह मोड़ने की जगह पारेख और बारू के उठाए गए मुद्दों का सोनिया और राहुल हर हाल में जवाब दें।1पारेख को अंतत: क्लीनचिट देगी सीबीआइ : विनोद राय1पूर्व नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) विनोद राय सोमवार को पूर्व कोयला सचिव पीसी पारेख के समर्थन में उतर आए। कोल ब्लॉक आवंटन घोटाले में पारेख को सीबीआइ ने नामजद अभियुक्त बनाया है। राय ने दावा किया है कि जांच एजेंसी पारेख को अंतत: क्लीनचिट दे देगी।

नई दिल्ली, प्रेट्र : भाजपा ने सोमवार को सोनिया गांधी और राहुल गांधी से कहा कि वे सत्ता के दो केंद्रों और प्रधानमंत्री के राजनीतिक अधिकार के बारे में पूर्व कोयला सचिव पीसी पारेख और प्रधानमंत्री के पूर्व मीडिया सलाहकार संजय बारू की किताबों में उठाए गए मुद्दों पर सफाई दें। भाजपा प्रवक्ता निर्मला सीतारमन ने कहा कि दोनों किताबों ने केवल उन्हीं बातों को बल दिया है जिनके बारे में भाजपा हमेशा से कहती रही है। यह परिवार अब इन सवालों का जवाब देने की जिम्मेदारी से भाग नहीं सकता। यही समय है जब इन सवालों का जवाब दिया जाए। इन मुद्दों से मुंह मोड़ने की जगह पारेख और बारू के उठाए गए मुद्दों का सोनिया और राहुल हर हाल में जवाब दें।1पारेख को अंतत: क्लीनचिट देगी सीबीआइ : विनोद राय1पूर्व नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) विनोद राय सोमवार को पूर्व कोयला सचिव पीसी पारेख के समर्थन में उतर आए। कोल ब्लॉक आवंटन घोटाले में पारेख को सीबीआइ ने नामजद अभियुक्त बनाया है। राय ने दावा किया है कि जांच एजेंसी पारेख को अंतत: क्लीनचिट दे देगी।

मंत्रियों की नियुक्ति में भी पीएम का नियंत्रण नहीं1 16






Monday, April 14, 2014

लचार प्रधानमंत्री

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मज़ार की देखभाल हिंदू करते हैं






छत्तीसगढ़ के बालोद जिले में सांप्रदायिक सौहार्द का एख अनूठा उदाहरण देखने को मिलता है. यहां जलाउद्दीन बगदाद वाले बाबा की मज़ार है जिसकी पूरी देख-रेख यहां के लिए बनी हिन्दुओं की समिति करती है. पिनकापार गांव में एकमात्र मुस्लिम परिवार रहता है और वह भी हिन्दुओं की इस धार्मिक आस्था से प्रसन्न है. गांव में बनी मज़ार की पिछले 100 वर्ष से यहां के हिन्दू पूरी शिद्दत से देखभाल करते आ रहे हैं, और उन्होंने इसके लिए कमेटी बनाई है, जो मज़ार को सुरक्षित रखने के लिए पहले अस्थाई शेड बनाना चाहती है, इसलिए गांववालों से धन संग्रह किया जा रहा है. यहां की आबादी करीब 450 परिवारों की है, जिसमें मुस्लिम परिवार सिर्फ एक है. शुरुआत में परकोटे का निर्माण दाऊ शशि देशमुख ने कराया और प्रत्येक शुक्रवार को 20 से अधिक हिन्दू परिवार मज़ार पर अगरबत्ती व धूप से इबादत करते हैं. बुजुर्गों का कहना है कि वर्ष 1890 में यहां करीब 70 मुस्लिम परिवार रहते थे, लेकिन अब सिर्फ एक ही सत्तार खां का परिवार रहता है. बताया गया कि एक दशक पहले हिंदुओं के सहयोग से महबूब खां ताजिया निकाला करते थे और जब से उनकी मृत्यु हुई, ताजिया निकलने बंद हो गए हैं.पिनकापार से करीब 12 किलोमीटर दूर ग्राम जेवरतला है. यहां के निवासी धनराज ढोबरे (मराठा) पिछले 26 साल से प्रत्येक शुक्रवार इस मज़ार पर आ रहे हैं. ढोबरे कहते हैं कि यहां आने पर उन्हें सुकून मिलता है. इसी तरह से 20 साल से इतवारी रजक भी मज़ार पर आ रहे हैं. रजक ने अपने होटल में मज़ार के विस्तार के लिए दानपात्र रखा है. अब तो यहां आसपास के गांवों से भी हिन्दू इबादत के लिए पहुंचने लगे हैं. - See more at: http://www.chauthiduniya.com


Friday, April 11, 2014

देश को जनाभिमुख अर्थव्यवस्था की ज़रूरत

क्या सचमुच देश में एक बदलाव आते-आते भटक गया, रुक गया या समाप्त हो गया? प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपनी अंतिम प्रेस कांफ्रेंस में कहा कि देश की अर्थव्यवस्था 1991 की अर्थवयवस्था की जगह पर पहुंच गई है. मनमोहन सिंह ने कहा है, तो सही होगा, लेकिन कुछ अर्थशास्त्रियों का कहना है कि अर्थव्यवस्था 1991 से भी बुरे दौर में पहुंच गई है. शायद इसीलिए बड़े पैमाने पर सोना गिरवी रखने का कार्यक्रम सरकार ने बनाया है. तब इन 22 सालों में क्या हुआ? यह सवाल है, इस सवाल का जवाब न तो प्रधानमंत्री देंगे और न ही वित्तमंत्री, लेकिन इस सवाल का जवाब एक और सवाल में छिपा हुआ है. अब इसे सवाल कहें या उत्तर, इसका ़फैसला पाठकों को करना है. जब मनमोहन सिंह वित्तमंत्री थे, उस समय देश में नक्सलवाद प्रभावित ज़िलों की संख्या चालीस थी, जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने, उस समय नक्सलवाद प्रभावित ज़िलों की संख्या लगभग साठ थी और अब जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री पद छोड़ रहे हैं, तो नक्सलवाद प्रभावित ज़िलों की संख्या 272 से ज़्यादा है. नक्सलवाद प्रभावित क्षेत्रों की संख्या इसलिए तेजी से बढ़ी, क्योंकि बाज़ार आधारित अर्थनीति या खुली अर्थव्यवस्था ने देश के विभिन्न हिस्सों में विकास रोक दिया, देश का विकास बाज़ार के हाथों में छोड़ दिया और बाज़ार वहीं विकास करता है, जहां उसे लोगों की क्रयशक्ति के ऊपर विश्‍वास हो, बाकी जगहों पर बाज़ार कुछ नहीं करता. इसलिए चाहे गुजरात हो या दूसरे प्रदेश हों, इंफ्रास्ट्रक्चर का विकास उन्हीं जगहों पर हुआ है, जो शहरों के आसपास हैं. यह तथ्य किसी भी प्रचार से झुठलाया नहीं जा सकता. बाज़ार ने देश के सत्तर प्रतिशत लोगों को अपनी पहुंच से बाहर मान लिया है, इसलिए देश के उन हिस्सों में विकास नहीं पहुंचा. जहां विकास नहीं पहुंचा और जहां पर सरकार ने अपना हाथ लोगों की तकलीफों, शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार से खींच लिया, वहां पर नक्सलवाद पहुंच गया. यह नक्सलवाद लगभग देश के सारे सीमावर्ती प्रदेशों में है और इससे लड़ने की हिम्मत सरकार नहीं कर पा रही है. बंदूकों के जरिए नक्सलवाद से नहीं लड़ा जा सकता है, क्योंकि नक्सलवाद भूख को मिटाने की आशा ख़त्म होने के बाद हाथों में बंदूक थमा देता है. यह विचार है, इस विचार का मुकाबला जनता का भला करने वाली आर्थिक नीति से किया जा सकता है. जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 1991 में भाषण दिया था कि हम इसलिए खुली अर्थव्यवस्था ला रहे हैं, बाज़ार को ला रहे हैं, ताकि देश में बिजली पहुंच सके, सड़कें पहुंच सकें, संचार पहुंच सके, शिक्षा पहुंच सके, ग़रीबी दूर हो सके और रोज़गार बढ़ सके, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. बाज़ार ने उसी चीज के ऊपर अपना जोर लगाया, जिससे लोगों की जेब से पैसा निकल सके. मोबाइल हर जगह पहुंच गया है. कहने के लिए मोबाइल संपर्क का साधन है, लेकिन इससे ज़्यादा मोबाइल संचार कंपनियों की जेब भरने का साधन है. अगर हम याद करें, तो इन्हीं मोबाइल कंपनियों ने अरबों-खरबों रुपये की लूट स़िर्फ हवा के ऊपर तरंगें भेजने में, जिसमें एक पैसा नहीं लगता, हमारे देश से की. आज की कॉल रेट और आज से छह साल पहले की कॉल रेट का फ़़र्क अगर हम देखें, तो हमें एहसास हो जाएगा कि हमारी जेब से कितने अरबों रुपये इन मोबाइल कंपनियों की जेब में चले गए. लेकिन लोगों के हाथ में रोज़गार नहीं आए, शिक्षा नहीं आई, बिजली नहीं आई. और आज प्रधानमंत्री कहते हैं कि हम 1991 की हालत में खड़े हैं. यह जो खुली अर्थव्यवस्था या बाज़ार आधारित अर्थव्यवस्था कहलाती है, यह अर्थव्यवस्था ग़रीबों के ख़िलाफ़ है. हिंदुस्तान में विविध समुदाय के लोग रहते हैं, आदिवासी रहते हैं, दलित हैं, पिछड़े हैं, मुसलमान हैं. ग़रीबी इस सीमा तक है कि बड़ी जाति के कहलाने वाले लोग भी लगभग दलितों एवं मुसलमानों की श्रेणी में ही आते हैं. जिनके घर में पैसा नहीं पहुंचता, वे अपने जातीय दंभ में भले फूले रहें, लेकिन उनकी हालत मुस्लिम समाज और दलित समाज से अलग नहीं है, बल्कि कहें कि कुछ जगहों पर दलित समाज और मुस्लिम समाज उनसे ज़्यादा अच्छा है. इस स्थिति का मुकाबला एक वैकल्पिक अर्थव्यवस्था से किया जा सकता है. इस अर्थव्यवस्था का सबसे पहले, सालों के बाद ऐलान श्री अन्ना हजारे ने किया और उन्होंने एक वैकल्पिक अर्थव्यवस्था का स्वरूप देश की जनता के सामने रखा. उनकी अर्थव्यवस्था के इस स्वरूप का उत्तर किसी राजनीतिक दल ने नहीं दिया, लेकिन राजनीतिक दलों की इस भीड़ में से ममता बनर्जी ने अन्ना हजारे के आर्थिक कार्यक्रम का समर्थन किया, जो कि वैकल्पिक आर्थिक कार्यक्रम है. अन्ना हजारे ने उसका स्वागत किया और दोनों मिलकर देश में राजनीतिक स्तर पर परिवर्तन की बात करने लगे. बाज़ार आधारित अर्थव्यवस्था को लगा कि अगर यह आवाज़ उठ गई, तो ग़रीब इनके साथ हो जाएंगे. इसलिए उन्होंने अन्ना हजारे और ममता बनर्जी को तोड़ने की पूरी कोशिश की और इसमें वे सफल रहे. ऐसे लोग, जो विदेशों से फंड लेते हैं, विदेशों में रहते हैं और केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश के दलाल हैं, वे अन्ना हजारे के पास चले गए. अन्ना हजारे के पास आम आदमी पार्टी के दलाल भी पहुंच गए और इन लोगों ने अन्ना को यह समझाया कि अगर उन्होंने राजनीतिक दल का समर्थन किया, तो उनके ऊपर व्रत भंग करने का, तप भंग करने का वैसा ही पाप लग जाएगा, जैसा विश्‍वामित्र के ऊपर लगा था. अन्ना हजारे एक संत हैं और संत की एक बड़ी कमज़ोरी होती है. उसे जनता की कम, अपनी छवि की चिंता ज़्यादा होती है और इसी कमजोरी ने अन्ना हजारे को देश में एक बड़े बदलाव की लड़ाई से अलग करा दिया. अन्ना हजारे को इन लोगों ने समझा दिया कि उनके ऊपर पार्टियों को समर्थन न करने का वचन तोड़ने का दाग लग जाएगा. अन्ना हजारे को यह दाग बड़ा लगा, अपनी छवि ज़्यादा बड़ी लगी और देश की जनता के दु:ख-तकलीफ, बीमारी, कुशिक्षा, महंगाई एवं बेरोज़गारी हल्के लगे, इसीलिए उन्होंने बनती हुई एक ताकत को एक झटके में तोड़ दिया. मैं कठोर शब्दों का इस्तेमाल नहीं करना चाहता, लेकिन उन्होंने बहुत ही अगंभीरता से ममता बनर्जी का साथ छोड़ देने का ऐलान किया. दूसरी तरफ़ ममता बनर्जी भी प्रो-पीपुल एजेंडे के हक़ में कितनी थीं, इसका पता लग गया. बंगाल में उन्होंने मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के एजेंडे को लेकर मार्क्सवादी पार्टी को सत्ता से हटा दिया, लेकिन देश में जनता के लिए लड़ने का उनका हौसला उतना मजबूत नहीं था या शायद उनमें आत्मविश्‍वास की कमी थी. ममता बनर्जी की भाषा बंगाली है या अंग्रेजी है. वह हिंदीभाषी प्रदेशों के चुनाव प्रचार में शामिल होने का साहस नहीं जुटा सकीं. शायद उन्हें लगा कि उनकी हिंदी उनकी बात लोगों में कम्युनिकेट नहीं कर पाएगी, जबकि ऐसा था नहीं. ममता बनर्जी की हिंदी बहुत अच्छी है, पर आप अपनी समझ को क्या कहेंगे और उन लोगों को क्या कहेंगे, जिन्होंने ममता बनर्जी को एक तरह से अपनी कैद में रखा है. ममता बनर्जी जिन लोगों की आंखों से दुनिया देख रही हैं, वे लोग खुद एक प्रकार से भाषा की समस्या से ग्रस्त हैं. उन्हें लगता है कि बंगाल में रहने वाले सर्वोत्तम हैं और उत्तर भारत में रहने वाले लोग सर्वोत्तम नहीं हैं. उत्तर भारत के लोग उन्हें एक तरह से अपरिपक्व, असंवेदनशील और वचन को न निभाने वाले लोग लगते हैं. ममता बनर्जी के साथ इतनी कमजोरियों के होते हुए भी यह विश्‍वास था कि वह कम से कम सारे देश में प्रो-पीपुल इकोनॉमिक के एजेंडे को लेकर घूमेंगी, लेकिन उन्होंने भी बंगाल में घूमना ज़्यादा पसंद किया. लेकिन, इसमें ममता बनर्जी का दोष कम है और अन्ना हजारे का ज़्यादा. ममता बनर्जी न भी घूमतीं, लेकिन अन्ना हजारे का संत के नाते यह कर्तव्य था कि वह आर्थिक एजेंडे को लेकर सारे देश में घूमते और इस चुनाव में वह भले ही किसी का चुनाव प्रचार करते या न करते, लेकिन प्रो-पीपुल आर्थिक एजेंडे को वह न छोड़ते. उन्होंने उस आर्थिक एजेंडे को ही छोड़ दिया और यहीं एक संत जनता की तकलीफों से खुद को अलग कर गया. आज हम जितने प्रकार के संत देखते हैं, वे हिंदू हों या मुसलमान, दरगाहों में बैठने वाले हों, मंदिरों में बैठने वाले हों, गिरजाघरों में बैठने वाले हों, ये सभी जनता की समस्याओं, उसकी तकलीफों से बहुत वास्ता नहीं रखते. ये जनता को एक कल्पना लोक में ले जाकर उसकी समस्याओं का हल सुझाते हैं कि तुमको मरने के बाद ये-ये चीजें मिलेंगी. दूसरे शब्दों में, अन्ना हजारे ने भी कुछ ऐसा ही किया. अन्ना हजारे को केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश के इशारे पर विदेशी फंडी एनजीओज ने यह बताया कि आप 2014 का चुनाव ख़त्म होने के बाद 2019 के चुनाव के लिए एक बैठक बुलाइए और एक पॉलिटिकल ग्रुप बनाइए. अन्ना हजारे 76 साल के हैं और यह समझाने वाले अच्छी तरह जानते हैं कि 2019 तक प्रकृति अन्ना को इतना स्वस्थ रहने देगी या नहीं, कहा नहीं जा सकता. आज अन्ना हजारे कई बीमारियों से ग्रसित हैं. उनकी पीठ में उनकी रीढ की हड्डी में दर्द होता है, क्योंकि उसका एक मनका घिस गया है. अन्ना को एसिडिटी है और भी कुछ बीमारियां हैं, लेकिन अन्ना फिर भी चलने की हिम्मत रखते हैं, लेकिन इन लोगों ने अन्ना को डरा दिया और उन्हें एक ऐसे संभावित आक्षेप का डर दिखा दिया, जो उनके ऊपर कभी नहीं लगता. लेकिन, न्यू लिबरल इकोनॉमी और खुली अर्थव्यवस्था इस देश के लिए ख़तरनाक है. आज नक्सलवाद गांवों में है, छोटे शहरों में है, लेकिन कल यह नक्सलवाद मुंबई के दलाल स्ट्रीट और नरीमन प्वाइंट तक पहुंच जाएगा. इसका मुकाबला फिर सरकार बंदूक और तोप से करना चाहेगी, हेलिकॉप्टर से करना चाहेगी, लेकिन यह होगा नहीं. और जब नहीं होगा, तो यह देश एक तनाव की स्थिति में पहुंचेगा, जिसका परिणाम अराजकता भी हो सकती है और गृहयुद्ध भी हो सकता है. विदेशी शक्तियां यही चाहती हैं. विदेशी शक्तियां देश में अराजकता चाहती हैं और कुछ लोग जनता का नाम लेकर देश में अराजकता फैलाने की खुलेआम वकालत कर रहे हैं. वे समस्याओं के हल न होने की बात चिल्ला-चिल्ला कर रहे हैं, जो लोगों को पसंद आ रही है, पर वे कोई वैकल्पिक तरीका नहीं बताते, बल्कि उसी अर्थव्यवस्था को लागू करने की बात करते हैं, जिसने महंगाई, भ्रष्टाचार, सांप्रदायिकता, नक्सलवाद एवं अराजकता जैसी स्थिति पैदा की है. इसलिए उन लोगों का, चाहे वे देश में किसी पार्टी में हैं या नहीं हैं, बुद्धिजीवी हैं या नहीं हैं, किसान हैं या नहीं हैं, मज़दूर हैं या नहीं हैं, लेकिन इस देश के नागरिक हैं, फर्ज है कि वे देश के ख़िलाफ़, ग़रीब के ख़िलाफ़ खड़ी अर्थव्यवस्था का विरोध करें और उस अर्थव्यवस्था को लागू करने की आवाज़ उठाए, जिसे हम जनाभिमुख अर्थव्यवस्था या प्रो-पीपुल अर्थव्यवस्था कहते हैं. अगर ऐसा नहीं हुआ, तो मैं फिर यह कहने की इजाजत चाहता हूं कि यह देश एक अराजकता की तरफ़ धीरे-धीरे बढ़ जाएगा.     - See more at: 


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Tuesday, April 8, 2014

History of 1900 to 1947

1900-1947 का इतिहास

भारत 1900-1947

1900 में, भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा था; लेकिन 1947 के अंत तक, भारत को आजादी हासिल की थी.
उन्नीसवीं सदी के अधिकांश के लिए, भारत में ब्रिटिश शासन था. भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के मुकुट में गहना माना जाता था. महारानी विक्टोरिया को भारत की साम्राज्ञी बनाया गया था और ब्रिटिश भारत में एक प्रमुख सैन्य उपस्थिति थी.
भारतीय नागरिकों को केन्द्रीय सरकार में कोई दखल नहीं था और यहां तक ​​कि एक स्थानीय स्तर पर, नीति और निर्णय लेने पर उनके प्रभाव कम से कम था.
1885 में, शिक्षित मध्यम वर्ग के नागरिकों की स्थापना की थी  भारतीय राष्ट्रीय सम्मेलन (कांग्रेस). उनका उद्देश्य भारत शासित था 
इस विकास के जवाब में,  मॉर्ले-मिंटो  सुधारों 1909 में शुरू किए गए थे. मॉर्ले भारत के लिए राज्य के सचिव और प्रभु मॉर्ले था भारत के वायसराय था. उनके सुधारों भारत अपने स्वयं के गवर्नर और भारतीय नागरिकों इन राज्यपालों की सलाह दी जो परिषदों पर बैठने की अनुमति दी गई होने में प्रत्येक प्रांत के लिए नेतृत्व. करता था 
1918 के बाद, भारत के भीतर राष्ट्रवाद तेज हो गया. शायद दो कारण ये थे  
1. भारत में कई शिक्षित नागरिकों दूर मॉर्ले-मिंटो सुधारों से संतुष्ट थे. व्हाइट अंग्रेजों अभी भी भारत का प्रभुत्व है और उनकी शक्ति या राष्ट्रीय शक्ति में वृद्धि में कोई वास्तविक कमी की गई थी.कांग्रेस (भारतीय राष्ट्रीय परिषद) एक बहुत अधिक चाहता था.
2. वुडरो विल्सन राष्ट्रीय आत्मनिर्णय में अपने विश्वास के साथ कई लोगों के मन को प्रेरित किया था - एक देश से लोगों को स्वयं को नियंत्रित करने का अधिकार था कि अर्थात्. राष्ट्रीय आत्मनिर्णय की पूरी अवधारणा ब्रिटिश साम्राज्य के मूल विचार को कम आंका - ब्रिटिश इस साम्राज्य (या ऐसा ही करने की अंग्रेजों द्वारा नियुक्त लोग) शासित कि. पूरी तरह से काम करने के लिए राष्ट्रीय आत्मनिर्णय के लिए, भारत भारतीयों वहाँ रह द्वारा नियंत्रित करना होगा.
"एक दृश्य के साथ स्वशासित संस्थाओं का क्रमिक विकास भारत में जिम्मेदार सरकार की प्रगतिशील अहसास को ब्रिटिश साम्राज्य का एक अभिन्न अंग के रूप में: के रूप में 1917 के शुरू के रूप में, ब्रिटेन भारत स्वशासन का एक उपाय देने का विचार किया था ".
1919 में, भारत सरकार अधिनियम पेश किया गया था.
यह भारत के लिए दो घरों के साथ एक राष्ट्रीय संसद में पेश किया.लगभग 5 लाख धनी भारतीयों की (कुल जनसंख्या का एक बहुत छोटा प्रतिशत) को मतदान का अधिकार दिया गयाप्रांतीय सरकारों के भीतर, शिक्षा, स्वास्थ्य और लोक निर्माण के मंत्रियों अब भारतीय नागरिक हो सकता हैएक आयोग भारत अधिक रियायतें / सुधारों के लिए तैयार किया गया था देखने के लिए अगर, 1929 में आयोजित की जाएगी.
हालांकि, ब्रिटिश सभी केन्द्रीय सरकार नियंत्रित और प्रांतीय सरकारों के भीतर, ब्रिटिश टैक्स और कानून व्यवस्था के महत्वपूर्ण पदों के नियंत्रण रखा.
कई टोरी सांसद का ब्रिटेन में स्वशासन के मामले में भारत को जो भी कुछ भी देने के पूरे विचार के खिलाफ थे. वे पूरे विचार के बारे में दो शिकायत की थी:
आप भारत स्वशासन के कुछ फार्म दे दी है 1., जहां यह खत्म हो जाएगा?
2. यह ब्रिटिश साम्राज्य के टूटने के लिए नेतृत्व करेंगे कि प्रक्रिया शुरू होगी?
सुधारों बहुत धीरे धीरे शुरू की है और इतने बड़े देश भर में उनके प्रसार के रूप में समान रूप से धीमी गति से किया गया था. ब्रिटिश जानबूझ कर भारत में उनके निरंतर सर्वोच्चता सुनिश्चित करने के लिए इन सुधारों को शुरू करने पर रोकने रहे थे कि एक आम धारणा है कि वहाँ था के रूप में यह कई नाराज हो गए.
दंगे भड़क तोड़ दिया और सबसे कुख्यात पर था  अमृतसर  379 निहत्थे प्रदर्शनकारियों वहाँ आधारित ब्रिटिश सैनिकों ने गोली मारकर हत्या जहां पंजाब में. 1,200 घायल हो गए थे. यह घटना भारत में कई हैरान लेकिन क्या बराबर आक्रोश अमृतसर को ब्रिटिश प्रतिक्रिया थी वजह से - अमृतसर, जनरल डायर पर ब्रिटिश सैनिकों की कमान अधिकारी, बस एक जांच दंगा के दौरान उनके नेतृत्व की आलोचना के बाद उसकी आयोग इस्तीफा देने की अनुमति दी गई थी.कई राष्ट्रीय भारतीयों वह, और सेना में दूसरों को बहुत हल्के से दूर हो गया था कि लगा. अधिक कट्टरपंथी भारतीयों को ब्रिटिश सरकार ने सभी लेकिन हत्या मंजूर था कि लगा. 
अमृतसर का एक परिणाम के रूप में, कई भारतीयों को कांग्रेस में शामिल होने के लिए पहुंचे और यह बहुत जल्दी से आम जनता की पार्टी बन गई.
"अमृतसर के बाद, कोई फर्क नहीं पड़ता ब्रिटिश सुझाव हो सकता है क्या समझौता और रियायतें, ब्रिटिश शासन अंततः बह जाएगी."
भारत के लिए स्वशासन के कुछ फार्म के विचार के सबसे मुखर विरोधी भगवान Birkenhead पूरे 1924-1928 भारत के लिए राज्य के सचिव था. इस तरह के एक प्रतिद्वंद्वी के साथ, स्वशासन के लिए कोई कदम शायद सबसे अच्छा है पर बहुत मुश्किल था, और वास्तविकता में असंभव.
भारत में 1920 के भारत के भविष्य पर एक बड़ा प्रभाव हो लिए थे, जो तीन लोगों को उभरते देखा:
गांधी अहिंसक विरोध प्रदर्शन का उपयोग करने के लिए अपने अनुयायियों के कई राजी कर लिया. उन्होंने कहा कि वे ब्रिटेन के एक भारी हाथ ढंग से प्रतिक्रिया व्यक्त की है, यह केवल ब्रिटिश बुरा लग बनाया आदि अपने करों का भुगतान करने से इनकार कर दिया, क्योंकि वे काम करने के लिए मना कर दिया, नीचे बैठ हमलों था; अनिवार्य रूप से, ब्रिटिश तंग पर उनके शासन लागू बदमाशों के रूप में सामने आ जाएगा. हालांकि, अधिक चरम उपायों का उपयोग करना चाहता था, जो भारत में उन थे.
1919 में भारत सरकार के अधिनियम के भाग के एक आयोग भारत / अधिक स्वशासन होना चाहिए सकता का आकलन है कि 10 साल के बाद स्थापित किया जाएगा ने कहा कि. यह पहली बार 1928 में मिले -  साइमन कमीशन.
यह आयोग 1930 में सूचना मिली. आयोग पर कोई भारतीय वहां थे. यह प्रांतों लेकिन कुछ नहीं के लिए स्वशासन का प्रस्ताव रखा. यह तुरंत दी डोमिनियन दर्जा चाहता था जो कांग्रेस के लिए अस्वीकार्य था.
साइमन कमीशन की सूचना समय के दौरान, गांधी अपने दूसरे नागरिक अवज्ञा अभियान शुरू कर दिया. यह गांधी जानबूझकर कानून तोड़ने शामिल थे. भारत में कानून केवल सरकार नमक का निर्माण कर सकता है कि कहा गया है. समुद्र करने के लिए एक 250 मील मार्च के बाद, गांधी ने अपने ही नमक उत्पादन शुरू कर दिया. यह ब्रिटिश अधिकारियों और गांधी को गिरफ्तार किया गया था के साथ एक हिंसक टकराव का उत्पादन किया.
इस समय, भारत को एक सहानुभूति वायसराय नियुक्त किया गया था - लॉर्ड इरविन. उन्होंने कहा कि भारत डोमिनियन स्थिति होनी चाहिए कि माना जाता है - और वह सार्वजनिक रूप से इस विचार व्यक्त किया. इरविन चर्चा होने की समस्या के लिए धक्का दिया. वह 1930 और 1931 में दो गोलमेज सम्मेलनों का आयोजन किया. वे दोनों लंदन में आयोजित की गई.
कोई कांग्रेस सदस्य उपस्थित थे के रूप में पहला सम्मेलन विफल रहा है. अधिकांश भारतीय जेलों में थे. इरविन उनकी रिहाई के लिए धक्का दिया और वह दूसरे सम्मेलन में हिस्सा लेने के लिए ब्रिटेन की यात्रा के गांधी मनाया. धर्म - यह भविष्य के वर्षों में भारत को परेशान करने के लिए किया गया था कि एक मुद्दे पर टूट गया के रूप में इस विकास के बावजूद, सम्मेलन थोड़ा हासिल की. दूसरा सम्मेलन में उपस्थित लोगों ने तर्क दिया, और मुसलमानों के प्रतिनिधित्व के लिए एक स्वतंत्र भारतीय संसद में क्या होगा खत्म सहमत करने में विफल रहा.
1935 में,  भारत सरकार अधिनियम  पेश किया गया था. ब्रिटेन, इस समय, स्टेनली बाल्डविन, टोरी नेता, और रैमसे-मैकडोनाल्ड, लेबर नेता, कार्रवाई की एक संयुक्त पाठ्यक्रम पर सहमति व्यक्त की है, क्योंकि एक राष्ट्रीय सरकार और प्रगति विशुद्ध रूप से भारत में बनाया गया था. विंस्टन चर्चिल फूट फूट कर इसे करने के लिए विरोध किया था. अधिनियम पेश:
रक्षा और विदेशी मामलों को छोड़कर भारत में सब कुछ में कहने के लिए निर्वाचित भारतीय विधानसभा.ग्यारह प्रांतीय असेंबलियों स्थानीय मामलों पर प्रभावी पूरा नियंत्रण है थे.
अधिनियम डोमिनियन स्थिति का परिचय नहीं दिया और सफेद उपनिवेश अपने स्वयं के रक्षा और विदेश नीतियों को नियंत्रित करने के लिए अनुमति दी गई है के रूप में भारत में राष्ट्रवादियों इस बात से संतुष्ट नहीं थे. अधिनियम का दूसरा किनारा अर्थहीन हो गया होता तो भी अभी भी शासन करने वाले प्रधानों भारत के क्षेत्रों में अभी भी प्रांतीय विधानसभाओं के साथ सहयोग करने के लिए मना कर दिया.
अधिनियम के प्रमुख नाकाम रहने यह मुसलमानों और हिन्दुओं के बीच धार्मिक प्रतिद्वंद्विता को नजरअंदाज कर दिया था. भारत की जनसंख्या का लगभग दो तिहाई हिंदू थे और मुसलमान एक स्वतंत्र और लोकतांत्रिक भारत में वे गलत तरीके से इलाज किया जाएगा कि डर था. 1937 प्रांतीय चुनावों में नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी का प्रभुत्व है जो हिंदुओं, ग्यारह प्रांतों में से आठ जीत हासिल की. जिन्ना के तहत मुस्लिम लीग पाकिस्तान कहलाने के लिए अपनी खुद की एक अलग राज्य की मांग की. गांधी और कांग्रेस पार्टी दोनों ही भारतीय एकता की रक्षा करने के लिए निर्धारित किया गया. हिंदुओं और मुसलमानों के बीच इस तरह की एक प्रतिद्वंद्विता केवल भारत के भविष्य के लिए बीमार शुभ सकता है.
विश्व युद्ध के दो  भारतीय मुद्दे हटाया - यद्यपि अस्थायी. भारतीयों विशेष रूप से बर्मा में अभियान में जापान के खिलाफ लड़ाई में महत्वपूर्ण सैन्य सहायता प्रदान की है. युद्ध समाप्त हो गया था एक बार ब्रिटिश भारत के लिए अधिराज्य स्थिति का वादा किया.
1945 में, क्लीमेंट एटली के नेतृत्व में नव निर्वाचित लेबर पार्टी की सरकार "भारतीय समस्या" के रूप में देखा गया था क्या हल करने के साथ आगे धक्का करना चाहता था. हालांकि, भारत में धार्मिक प्रतिद्वंद्विता एक सिर के लिए आ रहा है और किसी भी संभावित समाधान बहुत जटिल बनाया गया था. मुसलमानों और हिन्दुओं दोनों को स्वीकार्य था कि एक समझौता संविधान तैयार करने के प्रयास विफल रहे. ब्रिटिश योजना केन्द्र सरकार ही सीमित होता शक्तियों whilst के प्रांतीय सरकारों व्यापक शक्तियों की अनुमति थी. लेबर पार्टी की सरकार सबसे मुसलमान एक या दो प्रांतों में रहते थे और इन प्रांतों में सरकारें अपने निर्णय लेने में यह प्रतिबिंबित करेगा कि उम्मीद है कि अपने विश्वास डाल दिया. इस योजना में काम किया है, तो एक अलग मुस्लिम राज्य के लिए की जरूरत नहीं की जरूरत होगी. योजना को सिद्धांत रूप में स्वीकार कर लिया गया है, लेकिन इसके लिए विवरण नहीं थे.
. भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड वावेल, वावेल एक ऐसी सरकार की जानकारी के बाद बाहर हल किया जा सकता आशा व्यक्त की कि अगस्त 1946 में एक अंतरिम सरकार बनाने के लिए नेहरू आमंत्रित - लेकिन वह एक वास्तविक सरकार के निर्माण के भारतीय नागरिकों की अध्यक्षता में आशा व्यक्त की कि सभी ने समर्थन किया. हिन्दू नेहरू दो उनके मंत्रिमंडल में मुसलमानों लेकिन इस हिंसा को रोकने में सफल नहीं हुए शामिल थे. जिन्ना नेहरू भरोसा नहीं किया जा सकता है कि विश्वास हो गया और वह एक स्वतंत्र मुस्लिम राज्य पाने के लिए "प्रत्यक्ष कार्रवाई" लेने के लिए मुसलमानों से भी मुलाकात की. हिंसा फैला है और 5000 से अधिक लोगों को कलकत्ता में मारे गए थे. भारत के गृह युद्ध में उतरा.
जल्दी 1947 में, Atlee ब्रिटेन नहीं बाद में जून 1948 की तुलना में भारत छोड़ घोषणा की कि एक नया वायसराय नियुक्त किया गया है -. लॉर्ड माउंटबेटन - और वह विभाजन पेश किया गया था अगर शांति ही प्राप्त किया जा सकता है कि संपन्न हुआ. हिंदू कांग्रेस उसके साथ सहमत हुए.माउंटबेटन किसी देरी हिंसा बढ़ जाएगी विश्वास हो गया कि और वह ब्रिटेन अगस्त 1947 को भारत छोड़ने के लिए तारीख आगे धक्का दिया.
अगस्त 1947 में  भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम  पर हस्ताक्षर किए गए. यह पाकिस्तान के स्वतंत्र राज्य बनाने के लिए भारत से (भारत के उत्तर पश्चिम और पूर्वोत्तर क्षेत्रों में) मुस्लिम बहुल क्षेत्रों अलग कर दिया. इस नए राज्य को दो भागों के अलावा 1000 मील की जा रही है, दो में विभाजित किया गया था. अधिनियम कार्रवाई में लाना आसान नहीं था.
कुछ लोगों को विशेष रूप से पंजाब और बंगाल के मिश्रित प्रांतों में सीमाओं की गलत दिशा में खुद को पाया. लाखों नई सीमाओं में ले जाया गया - भारत में मुसलमानों को पाकिस्तान के लिए चले गए, जबकि नए पाकिस्तान हो गया था क्या में हिंदुओं भारत के लिए चले गए. दो आगे बढ़ समूहों से मुलाकात की है, जहां हिंसा विशेष रूप से 250,000 लोगों को धार्मिक संघर्ष में हत्या कर दी गई है, हालांकि यह है, जहां अस्थिर पंजाब प्रांत में हुई. हिंसा घट रहा था मानो 1947 के अंत तक यह लग रहा था लेकिन जनवरी 1948 में, एक हिंदू गांधी की हत्या कर दी. भारत की पूरी समस्या को अभिव्यक्त किया कि एक इशारे में, हिन्दू मुसलमानों के प्रति गांधी की सहिष्णुता घृणास्पद. हालांकि, गांधी की हत्या विडंबना यह है कि यह स्थिरता की अवधि की शुरुआत की है, कि इतने सारे लोगों को चौंका दिया.