Friday, April 11, 2014

देश को जनाभिमुख अर्थव्यवस्था की ज़रूरत

क्या सचमुच देश में एक बदलाव आते-आते भटक गया, रुक गया या समाप्त हो गया? प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपनी अंतिम प्रेस कांफ्रेंस में कहा कि देश की अर्थव्यवस्था 1991 की अर्थवयवस्था की जगह पर पहुंच गई है. मनमोहन सिंह ने कहा है, तो सही होगा, लेकिन कुछ अर्थशास्त्रियों का कहना है कि अर्थव्यवस्था 1991 से भी बुरे दौर में पहुंच गई है. शायद इसीलिए बड़े पैमाने पर सोना गिरवी रखने का कार्यक्रम सरकार ने बनाया है. तब इन 22 सालों में क्या हुआ? यह सवाल है, इस सवाल का जवाब न तो प्रधानमंत्री देंगे और न ही वित्तमंत्री, लेकिन इस सवाल का जवाब एक और सवाल में छिपा हुआ है. अब इसे सवाल कहें या उत्तर, इसका ़फैसला पाठकों को करना है. जब मनमोहन सिंह वित्तमंत्री थे, उस समय देश में नक्सलवाद प्रभावित ज़िलों की संख्या चालीस थी, जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने, उस समय नक्सलवाद प्रभावित ज़िलों की संख्या लगभग साठ थी और अब जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री पद छोड़ रहे हैं, तो नक्सलवाद प्रभावित ज़िलों की संख्या 272 से ज़्यादा है. नक्सलवाद प्रभावित क्षेत्रों की संख्या इसलिए तेजी से बढ़ी, क्योंकि बाज़ार आधारित अर्थनीति या खुली अर्थव्यवस्था ने देश के विभिन्न हिस्सों में विकास रोक दिया, देश का विकास बाज़ार के हाथों में छोड़ दिया और बाज़ार वहीं विकास करता है, जहां उसे लोगों की क्रयशक्ति के ऊपर विश्‍वास हो, बाकी जगहों पर बाज़ार कुछ नहीं करता. इसलिए चाहे गुजरात हो या दूसरे प्रदेश हों, इंफ्रास्ट्रक्चर का विकास उन्हीं जगहों पर हुआ है, जो शहरों के आसपास हैं. यह तथ्य किसी भी प्रचार से झुठलाया नहीं जा सकता. बाज़ार ने देश के सत्तर प्रतिशत लोगों को अपनी पहुंच से बाहर मान लिया है, इसलिए देश के उन हिस्सों में विकास नहीं पहुंचा. जहां विकास नहीं पहुंचा और जहां पर सरकार ने अपना हाथ लोगों की तकलीफों, शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार से खींच लिया, वहां पर नक्सलवाद पहुंच गया. यह नक्सलवाद लगभग देश के सारे सीमावर्ती प्रदेशों में है और इससे लड़ने की हिम्मत सरकार नहीं कर पा रही है. बंदूकों के जरिए नक्सलवाद से नहीं लड़ा जा सकता है, क्योंकि नक्सलवाद भूख को मिटाने की आशा ख़त्म होने के बाद हाथों में बंदूक थमा देता है. यह विचार है, इस विचार का मुकाबला जनता का भला करने वाली आर्थिक नीति से किया जा सकता है. जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 1991 में भाषण दिया था कि हम इसलिए खुली अर्थव्यवस्था ला रहे हैं, बाज़ार को ला रहे हैं, ताकि देश में बिजली पहुंच सके, सड़कें पहुंच सकें, संचार पहुंच सके, शिक्षा पहुंच सके, ग़रीबी दूर हो सके और रोज़गार बढ़ सके, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. बाज़ार ने उसी चीज के ऊपर अपना जोर लगाया, जिससे लोगों की जेब से पैसा निकल सके. मोबाइल हर जगह पहुंच गया है. कहने के लिए मोबाइल संपर्क का साधन है, लेकिन इससे ज़्यादा मोबाइल संचार कंपनियों की जेब भरने का साधन है. अगर हम याद करें, तो इन्हीं मोबाइल कंपनियों ने अरबों-खरबों रुपये की लूट स़िर्फ हवा के ऊपर तरंगें भेजने में, जिसमें एक पैसा नहीं लगता, हमारे देश से की. आज की कॉल रेट और आज से छह साल पहले की कॉल रेट का फ़़र्क अगर हम देखें, तो हमें एहसास हो जाएगा कि हमारी जेब से कितने अरबों रुपये इन मोबाइल कंपनियों की जेब में चले गए. लेकिन लोगों के हाथ में रोज़गार नहीं आए, शिक्षा नहीं आई, बिजली नहीं आई. और आज प्रधानमंत्री कहते हैं कि हम 1991 की हालत में खड़े हैं. यह जो खुली अर्थव्यवस्था या बाज़ार आधारित अर्थव्यवस्था कहलाती है, यह अर्थव्यवस्था ग़रीबों के ख़िलाफ़ है. हिंदुस्तान में विविध समुदाय के लोग रहते हैं, आदिवासी रहते हैं, दलित हैं, पिछड़े हैं, मुसलमान हैं. ग़रीबी इस सीमा तक है कि बड़ी जाति के कहलाने वाले लोग भी लगभग दलितों एवं मुसलमानों की श्रेणी में ही आते हैं. जिनके घर में पैसा नहीं पहुंचता, वे अपने जातीय दंभ में भले फूले रहें, लेकिन उनकी हालत मुस्लिम समाज और दलित समाज से अलग नहीं है, बल्कि कहें कि कुछ जगहों पर दलित समाज और मुस्लिम समाज उनसे ज़्यादा अच्छा है. इस स्थिति का मुकाबला एक वैकल्पिक अर्थव्यवस्था से किया जा सकता है. इस अर्थव्यवस्था का सबसे पहले, सालों के बाद ऐलान श्री अन्ना हजारे ने किया और उन्होंने एक वैकल्पिक अर्थव्यवस्था का स्वरूप देश की जनता के सामने रखा. उनकी अर्थव्यवस्था के इस स्वरूप का उत्तर किसी राजनीतिक दल ने नहीं दिया, लेकिन राजनीतिक दलों की इस भीड़ में से ममता बनर्जी ने अन्ना हजारे के आर्थिक कार्यक्रम का समर्थन किया, जो कि वैकल्पिक आर्थिक कार्यक्रम है. अन्ना हजारे ने उसका स्वागत किया और दोनों मिलकर देश में राजनीतिक स्तर पर परिवर्तन की बात करने लगे. बाज़ार आधारित अर्थव्यवस्था को लगा कि अगर यह आवाज़ उठ गई, तो ग़रीब इनके साथ हो जाएंगे. इसलिए उन्होंने अन्ना हजारे और ममता बनर्जी को तोड़ने की पूरी कोशिश की और इसमें वे सफल रहे. ऐसे लोग, जो विदेशों से फंड लेते हैं, विदेशों में रहते हैं और केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश के दलाल हैं, वे अन्ना हजारे के पास चले गए. अन्ना हजारे के पास आम आदमी पार्टी के दलाल भी पहुंच गए और इन लोगों ने अन्ना को यह समझाया कि अगर उन्होंने राजनीतिक दल का समर्थन किया, तो उनके ऊपर व्रत भंग करने का, तप भंग करने का वैसा ही पाप लग जाएगा, जैसा विश्‍वामित्र के ऊपर लगा था. अन्ना हजारे एक संत हैं और संत की एक बड़ी कमज़ोरी होती है. उसे जनता की कम, अपनी छवि की चिंता ज़्यादा होती है और इसी कमजोरी ने अन्ना हजारे को देश में एक बड़े बदलाव की लड़ाई से अलग करा दिया. अन्ना हजारे को इन लोगों ने समझा दिया कि उनके ऊपर पार्टियों को समर्थन न करने का वचन तोड़ने का दाग लग जाएगा. अन्ना हजारे को यह दाग बड़ा लगा, अपनी छवि ज़्यादा बड़ी लगी और देश की जनता के दु:ख-तकलीफ, बीमारी, कुशिक्षा, महंगाई एवं बेरोज़गारी हल्के लगे, इसीलिए उन्होंने बनती हुई एक ताकत को एक झटके में तोड़ दिया. मैं कठोर शब्दों का इस्तेमाल नहीं करना चाहता, लेकिन उन्होंने बहुत ही अगंभीरता से ममता बनर्जी का साथ छोड़ देने का ऐलान किया. दूसरी तरफ़ ममता बनर्जी भी प्रो-पीपुल एजेंडे के हक़ में कितनी थीं, इसका पता लग गया. बंगाल में उन्होंने मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के एजेंडे को लेकर मार्क्सवादी पार्टी को सत्ता से हटा दिया, लेकिन देश में जनता के लिए लड़ने का उनका हौसला उतना मजबूत नहीं था या शायद उनमें आत्मविश्‍वास की कमी थी. ममता बनर्जी की भाषा बंगाली है या अंग्रेजी है. वह हिंदीभाषी प्रदेशों के चुनाव प्रचार में शामिल होने का साहस नहीं जुटा सकीं. शायद उन्हें लगा कि उनकी हिंदी उनकी बात लोगों में कम्युनिकेट नहीं कर पाएगी, जबकि ऐसा था नहीं. ममता बनर्जी की हिंदी बहुत अच्छी है, पर आप अपनी समझ को क्या कहेंगे और उन लोगों को क्या कहेंगे, जिन्होंने ममता बनर्जी को एक तरह से अपनी कैद में रखा है. ममता बनर्जी जिन लोगों की आंखों से दुनिया देख रही हैं, वे लोग खुद एक प्रकार से भाषा की समस्या से ग्रस्त हैं. उन्हें लगता है कि बंगाल में रहने वाले सर्वोत्तम हैं और उत्तर भारत में रहने वाले लोग सर्वोत्तम नहीं हैं. उत्तर भारत के लोग उन्हें एक तरह से अपरिपक्व, असंवेदनशील और वचन को न निभाने वाले लोग लगते हैं. ममता बनर्जी के साथ इतनी कमजोरियों के होते हुए भी यह विश्‍वास था कि वह कम से कम सारे देश में प्रो-पीपुल इकोनॉमिक के एजेंडे को लेकर घूमेंगी, लेकिन उन्होंने भी बंगाल में घूमना ज़्यादा पसंद किया. लेकिन, इसमें ममता बनर्जी का दोष कम है और अन्ना हजारे का ज़्यादा. ममता बनर्जी न भी घूमतीं, लेकिन अन्ना हजारे का संत के नाते यह कर्तव्य था कि वह आर्थिक एजेंडे को लेकर सारे देश में घूमते और इस चुनाव में वह भले ही किसी का चुनाव प्रचार करते या न करते, लेकिन प्रो-पीपुल आर्थिक एजेंडे को वह न छोड़ते. उन्होंने उस आर्थिक एजेंडे को ही छोड़ दिया और यहीं एक संत जनता की तकलीफों से खुद को अलग कर गया. आज हम जितने प्रकार के संत देखते हैं, वे हिंदू हों या मुसलमान, दरगाहों में बैठने वाले हों, मंदिरों में बैठने वाले हों, गिरजाघरों में बैठने वाले हों, ये सभी जनता की समस्याओं, उसकी तकलीफों से बहुत वास्ता नहीं रखते. ये जनता को एक कल्पना लोक में ले जाकर उसकी समस्याओं का हल सुझाते हैं कि तुमको मरने के बाद ये-ये चीजें मिलेंगी. दूसरे शब्दों में, अन्ना हजारे ने भी कुछ ऐसा ही किया. अन्ना हजारे को केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश के इशारे पर विदेशी फंडी एनजीओज ने यह बताया कि आप 2014 का चुनाव ख़त्म होने के बाद 2019 के चुनाव के लिए एक बैठक बुलाइए और एक पॉलिटिकल ग्रुप बनाइए. अन्ना हजारे 76 साल के हैं और यह समझाने वाले अच्छी तरह जानते हैं कि 2019 तक प्रकृति अन्ना को इतना स्वस्थ रहने देगी या नहीं, कहा नहीं जा सकता. आज अन्ना हजारे कई बीमारियों से ग्रसित हैं. उनकी पीठ में उनकी रीढ की हड्डी में दर्द होता है, क्योंकि उसका एक मनका घिस गया है. अन्ना को एसिडिटी है और भी कुछ बीमारियां हैं, लेकिन अन्ना फिर भी चलने की हिम्मत रखते हैं, लेकिन इन लोगों ने अन्ना को डरा दिया और उन्हें एक ऐसे संभावित आक्षेप का डर दिखा दिया, जो उनके ऊपर कभी नहीं लगता. लेकिन, न्यू लिबरल इकोनॉमी और खुली अर्थव्यवस्था इस देश के लिए ख़तरनाक है. आज नक्सलवाद गांवों में है, छोटे शहरों में है, लेकिन कल यह नक्सलवाद मुंबई के दलाल स्ट्रीट और नरीमन प्वाइंट तक पहुंच जाएगा. इसका मुकाबला फिर सरकार बंदूक और तोप से करना चाहेगी, हेलिकॉप्टर से करना चाहेगी, लेकिन यह होगा नहीं. और जब नहीं होगा, तो यह देश एक तनाव की स्थिति में पहुंचेगा, जिसका परिणाम अराजकता भी हो सकती है और गृहयुद्ध भी हो सकता है. विदेशी शक्तियां यही चाहती हैं. विदेशी शक्तियां देश में अराजकता चाहती हैं और कुछ लोग जनता का नाम लेकर देश में अराजकता फैलाने की खुलेआम वकालत कर रहे हैं. वे समस्याओं के हल न होने की बात चिल्ला-चिल्ला कर रहे हैं, जो लोगों को पसंद आ रही है, पर वे कोई वैकल्पिक तरीका नहीं बताते, बल्कि उसी अर्थव्यवस्था को लागू करने की बात करते हैं, जिसने महंगाई, भ्रष्टाचार, सांप्रदायिकता, नक्सलवाद एवं अराजकता जैसी स्थिति पैदा की है. इसलिए उन लोगों का, चाहे वे देश में किसी पार्टी में हैं या नहीं हैं, बुद्धिजीवी हैं या नहीं हैं, किसान हैं या नहीं हैं, मज़दूर हैं या नहीं हैं, लेकिन इस देश के नागरिक हैं, फर्ज है कि वे देश के ख़िलाफ़, ग़रीब के ख़िलाफ़ खड़ी अर्थव्यवस्था का विरोध करें और उस अर्थव्यवस्था को लागू करने की आवाज़ उठाए, जिसे हम जनाभिमुख अर्थव्यवस्था या प्रो-पीपुल अर्थव्यवस्था कहते हैं. अगर ऐसा नहीं हुआ, तो मैं फिर यह कहने की इजाजत चाहता हूं कि यह देश एक अराजकता की तरफ़ धीरे-धीरे बढ़ जाएगा.     - See more at: 


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